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कफ़न - मुंशी प्रेमचंद

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सारांश इसका प्रारंभ इस प्रकार होता है- झोंपड़े के द्वार पर बाप और बेटा दोनों एक बुझे हुए अलाव के सामने चुपचाप बैठे हुए हैं और अंदर बेटे की जवान बीवी बुधिया प्रसव वेदना से पछाड़ खा रही थी। रह-रहकर उसके मुँह से ऐसी दिल हिला देने वाली आवाज़ निकलती थी कि दोनों कलेजा थाम लेते थे। जाड़ों की रात थी, प्रकृत्ति सन्नाटे में डूबी हुई, सारा गाँव अंधकार में लय हो गया था। जब निसंग भाव से कहता है कि वह बचेगी नहीं तो माधव चिढ़कर उत्तर देता है कि मरना है तो जल्दी ही क्यों नहीं मर जाती-देखकर भी वह क्या कर लेगा। लगता है जैसे कहानी के प्रारंभ में ही बड़े सांकेतिक ढंग से प्रेमचंद इशारा कर रहे हैं और भाव का अँधकार में लय हो जाना मानो पूँजीवादी व्यवस्था का ही प्रगाढ़ होता हुआ अंधेरा है जो सारे मानवीय मूल्यों, सद्भाव और आत्मीयता को रौंदता हुआ निर्मम भाव से बढ़ता जा रहा है। इस औरत ने घर को एक व्यवस्था दी थी, पिसाई करके या घास छिलकर वह इन दोनों बगैरतों का दोजख भरती रही है। और आज ये दोनों इंतजार में है कि वह मर जाये, तो आराम से सोयें। आकाशवृत्ति पर जिंदा रहने वाले बाप-बेटे के लिए भुने हुए आलुओं की की...

हो गई है पीर पर्वत सी - दुष्यंत कुमार

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1) हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। कवि दुष्यंत कुमार के अनुसार समाज में कई प्रकार की विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। मनुष्य-मनुष्य से ईर्ष्या, घृणा करते रहने से पीड़ाएँ पर्वत के समान फैल गई हैं। इसे पिघलना चाहिए। हिमालय से गंगा को निकलना चाहिए।  2) आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। आज यह दीवार ऐसे हिल रही है, मानो खिड़कियों व दरवाजों के लगे हुए परदे हिल रहे हैं। वास्तव में होना यह है कि सम्पूर्ण बुनियाद ही हिल जाये, ताकि फिर से कुछ नया निर्माण किया जा सके। ऐसी शर्त रख रहे हैं कि परिवर्तन की चाह है।  3) हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर तथा गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। 4) सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। समाज को यदि बदलना है, तो केवल आवाज देने या घोषणा करने से कुछ होगा नहीं। कवि का अटूट विश्वास है कि सिर्फ हंगामा करना उनका उद्देश्य नहीं है, बल्कि पूरी क...

जो बीत गई सो बात गई - हरिवंश राय बच्चन

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"जो बीत गई सो बात गई" यह हरिवंशराय बच्चन रचित बोधगम्य कविता है। इस कविता में कवि ने इन्सान को हौसला देते हुए कहा है कि जो बात चली गई है उसके बारे में सोचकर समय की बर्बादी करना व्यर्थ है, इसकी बजाय हमे एक नई शुरुआत करनी चाहिए। प्रस्तुत कविता का मुलभाव हम निम्नलिखित पंक्तियों मे रख सकते है…. "हंसकर जीना दस्तूर है जिंदगी का बीते हुए पल कभी लौटकर नहीं आते यही सबसे बड़ा कसूर है जिंदगी का।" हिंदी में भूतकाल और भविष्य दोनो को "कल" कहा जाता है। ये दोनो वह पहलू जिस पर मनुष्य का कोई बस नहीं है। जो बीत गया है उसे हम वापिस नहीं ला सकते इसलिए उस पर हमे दुखी नहीं होना है और जो आनेवाला है उस विषय में हमे पता ही नहीं है तो फिर इन दोनों चीजों के बारे में सोचकर इन्सान को अपना आज या वर्तमान बरबाद नहीं करना चाहिए, यही मूलतः इस कविता का सार है। कविता में कवि ने तीन उदाहरण दिए है… आकाश मधुवन मधुशाला प्रथम उदाहरण में कवि सितारों को संबोधित करते हुए कहते है कि सितारे बेहद प्यार थे लेकिन वो डूब गए है और सवेरा हो चुका है। लेकिन अम्बर के आनंद को देखो कितने इसके तारे टूट ...

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