हो गई है पीर पर्वत सी - दुष्यंत कुमार

1) हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए, इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। कवि दुष्यंत कुमार के अनुसार समाज में कई प्रकार की विसंगतियाँ देखने को मिलती हैं। मनुष्य-मनुष्य से ईर्ष्या, घृणा करते रहने से पीड़ाएँ पर्वत के समान फैल गई हैं। इसे पिघलना चाहिए। हिमालय से गंगा को निकलना चाहिए। 
2) आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी, शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। आज यह दीवार ऐसे हिल रही है, मानो खिड़कियों व दरवाजों के लगे हुए परदे हिल रहे हैं। वास्तव में होना यह है कि सम्पूर्ण बुनियाद ही हिल जाये, ताकि फिर से कुछ नया निर्माण किया जा सके। ऐसी शर्त रख रहे हैं कि परिवर्तन की चाह है।
 3) हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में, हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर तथा गाँव में हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। 4) सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। समाज को यदि बदलना है, तो केवल आवाज देने या घोषणा करने से कुछ होगा नहीं। कवि का अटूट विश्वास है कि सिर्फ हंगामा करना उनका उद्देश्य नहीं है, बल्कि पूरी कोशिश रहेगी कि सूरत ही बदल दी जाये। तात्पर्य यह है कि कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती। उसके लिए जन-जागृति अति आवश्यक है। 
5) मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। कवि अन्त में जागृत करते हुए कहते हैं कि मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में ही सही, आग होनी चाहिए, लेकिन वह आग सदा जलती रहनी चाहिए।

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